July 13, 2014

ज़िन्दगी

दुनिया बदलती हैं
लोग बदलते हैं
पर ज़िन्दगी.... चलती ही जाती हैं.... चलती ही जाती हैं....


हालात बदलते हैं
माहोल बदलता हैं
और कभी ज़िन्दगी.... रुक सी जाती हैं


अँधेरा बढ़ता ही चला जाता हैं
रोशिनी नज़र नहीं आती हैं
मानो पल में ही ये ज़िन्दगी… कही खो जाती हैं....


वक़्त के सामने घुटने टेक देते हैं
जीतने की होड़ में ना जाने क्या क्या खो देते हैं
मानो ज़िन्दगी बेबस हो जाती हैं....


आशाएं नहीं होती कुछ भी
उम्मीदें बिखर जाती हैं....
मानो ये ज़िन्दगी.... टूट सी जाती हैं....


जब कुछ समझ नहीं आता.…
किसी से कुछ भी मेल नहीं खाता…
मानो ये ज़िन्दगी.... उजड़ सी जाती हैं...


फिर सोचती...  वक़्त से पहले मिलता नहीं कुछ..
इसी तरह चलता हैं दुनिया का उसूल
ये सोच के ज़िन्दगी एक बार फिर संभल जाती है...


ठोकरे खा खा कर जब मज़बूती आ जाती हैं
ज़िंदगी एक बार फिर से सही राह पर निकल जाती हैं

ज़िन्दगी,, हाँ ये ज़िन्दगी.... जो देन हैं ऊपर वाले की…
 और जी रही हैं ये शरीर...   इसे पहुचना हैं उस किनारे..
इस बीच मझधार के पार..

ज़िन्दगी... हा… ये ज़िन्दगी....

Listen to the Poem in my own voice at SoundCloud Link : https://soundcloud.com/kutkarsh/zindagi-poem

-- अर्ष