November 14, 2014

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अभी जब तारीख देखी तो ये खयाल आया
कितना वक़्त हैं बीत गया, क्या कुछ हैं खोया और क्या पाया
एक बार फिर मस्त मौला जीवन जीने का खयाल उमड़ा मेरे मॅन मे
जब सोचते सोचते मुझे अपना बचपन याद आया

क्या दिन थे वो भी जब एक टॉफी पे मुस्कान आ जाती थी
और कोई बात ना सुने तो खिलखिलाती हंसी ही खो जाती थी
कहा फंस गये इस महीने दर महीने मिलने वाले पैसो के चक्कर मे
उस वक़्त तो दो रुपये मिलने पे मानो नौकरी लग जाती थी

ना कोई भेदभाव था ना जलन ना गुस्सा कभी किसी भी यार से
मिलते थे दिल खोलकर हर शाम और खेलते थे सभी प्यार से
हर त्योहार हर छुट्टी लाती थी खुशियो की एक झोली
और नहीं तो एक सनडे का दिन था जब देखते थे संग रंगोली

कभी सागर की लेहरें थी तो कभी नदी का किनारा था 
पहाड़ो पर उपर चढकर बादलो को छुने को मन बेगाना था
पत्ते तो थे पर उसमे सचिन और अंडरटेकर के तस्वीर जमते थे
जन्मदिन के दिन तोहफे खोलने को मन मचलते थे 

काश कभी हम एक बार फिर कर पाये उस तरह जीने की पेहल
जहा नहीं था अकेलापन या टेन्षन, बल्कि सबका सहारा था 
आओ दोस्तो, चलो बनाये एक बार फिर वो रेत का महल 
और जी ले वो नादान बचपन जो सच मे कितना प्यारा था ||

-- अर्ष 
(उत्कर्ष)